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लिङ्गोद्भव शिव की पौराणिक कथा
देवादिदेव भगवान शिव की आराधना साधारणतः एक लिङ्ग के रूप में होती है| श्वेताश्वतर उपनिषद् में लिङ्ग को एक चिह्न कहा गया है| लिङ्ग की उत्पत्ति को लेकर अनेक कथायें प्रचलित हैं| उनमें से एक पौराणिक कथा के अनुसार, बात उस समय की है, जब ब्रह्माण्ड की रचना नहीं हुई थी| चारों तरफ घनघोर अंधेरा था और जल का एक अथाह सागर था। विष्णुजी और ब्रह्माजी आपस में लड़ रहे थे की दोनों में श्रेष्ठ कौन है| वे दोनों स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना चाहते थे| तभी अचानक उनके सामने प्रकाश का एक स्तंभ उत्पन्न हुआ| ऐसा प्रतीत हो रहा था की प्रकाश का यह स्तंभ निरन्तर विस्तृत हो रहा था और समस्त सृष्टि को भर रहा था। ब्रह्मा और विष्णु ने निर्णय लिया की जो इस अनन्त प्रतीत होने वाले स्तंभ के छोर को सर्वप्रथम खोज लेगा, उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जाएगा।
ब्रह्मा ने एक हंस का रूप धारण किया और ऊपरी सिरे को खोजने के लिए ऊपर उड़ गए| विष्णु ने एक वराह का रूप धारण किया और निचले सिरे को खोजने के लिए गहरे समुद्र में चले गए। दोनों असफल रहे| प्रकाश का यह स्तंभ स्वयं शिव ही थे और अनन्त का अन्त कौन खोज सकता है? अव्यक्त, असीम महेश्वर, अपने भक्तों के लिए उसी समय से लिङ्ग में प्रतीकात्मक रूप में विराजमान हो गए ।
लिङ्गोद्भव शिव की कथा के गूढ़ अर्थ
इस कथा के अनेकानेक अभिप्राय हैं । निराकार शिव तक पहुँचना एक आम साधक के लिए मुश्किल हो सकता है, परन्तु यदि वह भक्तिन सच्चे एवं पवित्र मन से प्रभु की खोज करती है, तो प्रकाश रुपी शिव स्वयं उसके सामने प्रकट होते हैं| यह निरन्तर विस्तार करता हुआ , प्रकाश का अनन्त स्तंभ हमें याद दिलाता है की समस्त भूमण्डल अंधेरे रुपी अज्ञान से प्रकाश रुपि ज्ञान की ओर जा रहा है । जैसे शिव अनन्त हैं, वैसे ही ज्ञान भी अनन्त है|
ॐ नमः शिवाय|
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