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द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग | भारत के प्राचीन शिव मन्दिरों की तीर्थ यात्रा | 12 Jyotirlingas of Shiva

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शिव के अनन्य उपासक के लिए यह ब्रह्माण्ड महादेव की ही अभिव्यक्ति हैं और वे अनन्त दैदीप्यमान लिङ्गों के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं। सदियों से तीर्थयात्रियों के लिए इन अनगिनत लिङ्गों में से बारह स्वयंभू लिङ्ग जो कि भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर विराजमान हैं, विशेष महत्व रखते हैं। इन्हे आमतौर पर द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग कहा जाता है। ज्योति शब्द प्रकाश का पर्याय है और पौराणिक कथाओं के अनुसार अनादि काल में शिव प्रकाश के एक स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए थे । सम्भवतः तब से ही ज्योति और लिङ्ग एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े गए हैं।

श्रीसोमनाथ मन्दिर  – गिर सोमनाथ, गुजरात

आइये हम अपनी ज्योतिर्लिङ्ग यात्रा भारत के पश्चिमी तट पर सौराष्ट्र में स्थित सोमनाथ से प्रारम्भ करें । यहाँ स्वयं चन्द्रमा के नाथ, भगवान शङ्कर एक विशाल एवं दिव्य लिङ्ग के रूप में हिरण्या, कपिला और रहस्यमयी सरस्वती नदियों एवं समुद्र के अद्भुत संगम पर विद्यमान हैं ।

ऐतिहासिक रूप से प्रभास की पवित्र भूमि पर स्थित, इस प्राचीन तीर्थ स्थल में बारम्बार हुई लूटपाट और विनाश एवं उसके बाद पुनर्निर्माण की अनेक गाथायें प्राप्त होती हैं। वर्तमान काल में जिस भव्य सोमनाथ मन्दिर  में हमें महादेव के दर्शन प्राप्त होते है,  वह १९५१  सी.  ई.  में राष्ट्र को समर्पित किया गया था।

सोमनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

सोमनाथ वह स्थान है जहां चन्द्रमा ने कठोर तपस्या कर, भगवान शिव से दक्ष के श्राप से मुक्त होने के लिये प्रार्थना करी थी। कथा के अनुसार उनके अनुचित व्यवहार के दण्डस्वरूप, दक्ष ने चन्द्रमा को श्राप दिया था और वे भयंकर क्षय रोग से ग्रसित हो गये थे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया और तब से ही चन्द्र देव के बढ़ने एवं घटने का निरंतर चक्र प्रारम्भ हो गया।

श्रीमल्लिकार्जुन मन्दिर  – नांदयाल, आन्ध्र प्रदेश

हमारा अगला पड़ाव, कृष्णा नदी से घिरा, प्राचीन एवं नैसर्गिक सौन्दर्य से सुशोभित श्रीशैल पर्वत है। यहाँ भगवान शिव और माता पार्वती क्रमशः मल्लिकार्जुन स्वामी और भ्रमराम्बा देवी के रूप में विराजमान हैं। इस भव्य एवं पुरातन मन्दिर  में भक्तगण ज्योतिर्लिङ्ग की अर्चना चमेली के सुगंधित फूलों से कर, संसार रूपी सागर को पार करने हेतु महादेव की सहायता माँगते हैं।

प्राचीन मल्लिकार्जुन देवस्थान में भ्रमारम्बा नामक प्रसिद्ध शक्तिपीठ भी है। इसके प्रांगण के चारों ओर एक प्रभावशाली और अलंकृत नक्काशीदार प्राकार है जो पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

भगवान शिव और माता पार्वती अपने पुत्र स्कन्द के समीप रहने हेतु श्रीशैलम में निवास करने आये थे। माना जाता है कि अपने माता-पिता के अनुचित व्यवहार से आहत होकर, स्वामी कार्तिकेय कैलाश पर्वत छोड़, क्रौञ्च पर्वत पर जा कर रहने लगे थे। माता-पिता के समझाने पर भी उन्होंने वापस लौटने से मना कर दिया और कुछ समय पश्चात सुदूर दक्षिण में पलानी जाकर रहने लगे।

श्रीमहाकालेश्वर मन्दिर  – उज्जैन, मध्य प्रदेश

भारत के मध्य भाग में उज्जैन या प्राचीन अवंतिपुरी में स्थित, महाकाल का मनोरम निवास हमारा अगला गंतव्य है। काल के इन कालातीत स्वामी के चरण कमलों के पास शिप्रा नदी बहती हैं और  चांदी का सर्प उनके मुकुट के रूप में सुशोभित रहता है । भक्तगण उज्जैन के इस दिव्य ज्योतिर्लिङ्ग का दर्शन वहाँ के भव्य तीन मंज़िले मन्दिर के सबसे निचले स्तर पर स्थित गर्भगृह में कर सकते हैं। यहाँ के अनेकानेक श्रृंगार हमें निराकार शिव की साकार ईश्वर के रूप में अनुपम अनुभूति करने का अवसर प्रदान करते हैं।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

अवन्तिपुरी में महेश्वर अपने एक ब्राह्मण भक्त वेदप्रिय के चार पुत्रों की प्रार्थना पर, दुष्ट असुर दूषण और उसकी शक्तिशाली सेना का विनाश करने के लिए, महाकालेश्वर के रूप में प्रकट हुए थे। एक अन्य कथा के अनुसार मन्दिर की उत्पत्ति चन्द्रसेन नामक एक बहादुर राजा और गोपपुत्र नामक एक युवा भक्त से भी जुड़ी हुई है। इन दोनों को साक्षात भगवान शिव ने आशीर्वाद दिया था।

श्रीओङ्ककारेश्वर  मन्दिर  – खण्डवा, मध्य प्रदेश

हमारी यात्रा अब हमें पवित्र नर्मदा के बीचों-बीच स्थित एक द्वीप पर ले जाती है । यहाँ खण्डवा में, नर्मदा और कावेरी का पवित्र संगम होता है और प्रचलित मान्यता के अनुसार इस कालातीत तीर्थ में दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं – श्रीओङ्कारेश्वर और श्रीअमलेश्वर। आज भी यहाँ पर भक्त मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं और कहा जाता है कि स्वयं देवता भी महादेव की पूजा करते हैं।

ओङ्कारेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

श्रीओङ्कारेश्वर ॐ या प्रणव के पांच अक्षरों का प्रतिरूप हैं।  श्रीअमलेश्वर, शिव के वो स्वरूप हैं, जो महान पर्वत विंध्याचल के समक्ष तब प्रकट हुए थे जब विंध्याचल ने समस्त सिद्धियों की प्राप्ति का मार्ग जानने हेतु भगवान शङ्कर की भक्तिपूर्वक उपासना की थी।

एक अन्य पौराणिक कथा में यह भी बताया गया है कि इसी उत्कृष्ट क्षेत्र में इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता ने आशुतोष की पूजा-अर्चना की थी।

श्रीवैद्यनाथ मन्दिर  –  देवघर, झारखण्ड

अब समय है उत्तर पूर्व दिशा में देवघर की प्राचीन चिताभूमि में विराजमान बाबा वैद्यनाथ की शरण में जाने का । शारीरिक एवं मानसिक रोगों से छुटकारा दिलाने वाले इन भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त कर के तो लंकापति रावण भी धन्य हो गए थे ।  यहाँ श्रद्धालु बाबा का अभिषेक, मीलों दूर से अपने कंधों पर ढोकर लाये हुए पवित्र गंगा जल से कर, पापमुक्त होने के लिए प्रार्थना करते हैं।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

त्रेता युग में रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर कठोर तपस्या की थी। अंतत: उन्होंने अपने नौ सिर काट कर भगवान को अर्पण कर दिए थे। प्रसन्न होकर भगवान शङ्कर ने उनके मस्तकों को पूर्ववत स्थापित कर दिया था और एक दिव्य लिङ्ग भी भेंट की थी। रावण इस लिङ्ग को लंका में प्रतिष्ठित करना चाहते थे परन्तु ऐसा न हो सका। दैवीय कारणों के चलते, शिव के उस स्वरूप ने रास्ते में बाबा वैद्यनाथ के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया। तब से वहीं देवघर में ही इस ज्योतिर्लिङ्ग की पूजा-अर्चना की जाती है।

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग  के स्थान पर मतान्तर

कुछ भक्त महाराष्ट्र के परली ग्राम में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित प्राचीन शिव मन्दिर को भी वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में पूजते हैं।

श्रीभीमशङ्कर मन्दिर  – पुणे, महाराष्ट्र

पश्चिम की ओर, रमणीय सह्याद्रि पर्वत की कोख में स्थित, भीमशङ्कर, जहां शङ्करजी ने  दुष्ट असुर भीम का वध किया था, ज्योतिर्लिङ्ग यात्रा में हमारा अगला पड़ाव है। यहाँ भीमा नदी और प्रेतों के साथ, डाकिनी और शाकिनी वृंदों में देवादिदेव की उपासना कर, श्रद्धालु भय मुक्त होते हैं।

भीमशङ्कर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

भीमशङ्कर का प्रादुर्भाव देवताओं के अनुरोध पर, कुम्भकरण और कर्कटी  के पुत्र, भयानक राक्षस भीम को नष्ट करने के लिए हुआ था। ऐसी मान्यता है कि तद्पश्चात वे आसपास की भूमि को शुद्ध करने के लिए डाकिनी वन में ही रुक गये थे।

भीमशङ्कर ज्योतिर्लिङ्ग  के स्थान पर मतान्तर

कुछ भक्त असम में गुवाहाटी के पास डाकिनी पहाड़ी पर स्थित प्राचीन लिङ्ग को भी भीमशङ्कर ज्योतिर्लिङ्ग मानते हैं।

श्रीरामनाथस्वामी मन्दिर  – रामनाथपुरम, तमिलनाडु

हमारी पवित्र यात्रा का अगला ज्योतिर्लिङ्ग, भारत के दक्षिणी तट के एक छोटे से द्वीप में निर्मित, एक अद्भुत मन्दिर  में विद्यमान, स्वयं श्रीराम के भगवान – श्री रामेश्वर का है।  रामेश्वरम हिन्दू धर्म के चार धामों में से एक है और भक्तगण आज भी सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार, पर्वतराज हिमालय की कोख से लाया गया गंगाजल रामनाथस्वामी को अर्पण करते हैं।

रामनाथस्वामी के भव्य मन्दिर की विशाल एवं दर्शनीय दीर्घा, शिल्पकला की दृष्टि से उत्कृष्ट स्तम्भों से सुसज्जित है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह स्तम्भ स्वयं भगवान शङ्कर को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

रामेश्वरम ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

रामेश्वरम वह पवित्र तीर्थ है जहाँ भगवान राम ने स्वयं एक पार्थिव लिङ्ग की प्राण प्रतिष्ठा की थी। कहा जाता है की इस दिव्य स्वरूप में भगवान शिव, माता पार्वती के साथ निवास करते हैं। कुछ विवरणों के अनुसार श्रीराम ने लंका पर आक्रमण करने के पहले यहाँ पर शिवजी की आराधना कर उनसे वरदान माँगा था। अन्य कथाओं के मुताबिक उन्होंने लंका से लौटते समय सीता और लक्ष्मण के साथ यहाँ रुक कर, महादेव से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए याचना की थी।

श्रीनागेश्वर मन्दिर  – देवभूमि द्वारका, गुजरात

चलिए, अब वापस पश्चिम की ओर, देवभूमि द्वारका से कुछ दूर पर, प्राचीन दारुका वन में निवास करने वाले – नागों के स्वामी नागेश्वर और उनकी पत्नी नागेश्वरी को नमन करने चलें । कहा जाता है कि मात्र उनकी अर्चना और दर्शन से एक साधारण मनुष्य भी चक्रवर्ती राजा में परिणित हो सकता है।

नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा  

नागेश्वर में शिवलिङ्ग का प्रादुर्भाव एक अनन्य भक्त, वैश्य सुप्रिय की शक्तिशाली राक्षस दारुक से रक्षा करने के लिए हुआ था। भगवान मे अपने पाशुपत से घमंडी राक्षस और उसकी सेना का नाश कर दिया था। वहीं दूसरी ओर  माता पार्वती ने राक्षस की पत्नी दारुका को आशीर्वाद दिया था। तभी से, नाना प्रकार के प्राणी और मनुष्य इस वन में शान्तिपूर्वक निवास करते हैं।

नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग के स्थान पर मतान्तर

कुछ भक्त महाराष्ट्र में औंढा नागनाथ या उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा में जागेश्वर धाम को भी नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग मानते हैं।

श्री काशी विश्वनाथ मन्दिर  – वाराणसी, उत्तर प्रदेश

अब समय आ गया है उत्तर पूर्व की ओर यात्रा कर, मोक्षदायिनी गंगा के तट पर स्थित, पवित्र और कालातीत नगर वाराणसी के स्वामी, समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति, श्री काशी विश्वनाथ को नमन करने का। विश्वेशर सृष्टि के निर्माण से पहले भी यहाँ थे और सृष्टि के विनाश के बाद भी यहाँ रहेंगे। वह प्रकाश के वो अविरत, अनन्त पुंज है जिनका तेज कभी लुप्त नहीं हो सकता।

काशी विश्वनाथ के मनमोहक मन्दिर का बहुस्तरीय इतिहास लूटपाट और विनाश, पुनर्निर्माण और पुनः प्रतिष्ठा तथा अनेकानेक मुमुक्षुओं की अथक आस्था के अगणित किस्से-कहानियाँ अपनी कोख में समेटे हुए है।

विश्वेशर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा

मान्यता के अनुसार, काशी स्थित श्रीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग ही वह स्वयंभू प्रकाश स्तम्भ है जो ब्रह्मा और विष्णु के समक्ष अनादिकाल में प्रकट हुआ था। ऐसा भी कहा जाता है कि सृष्टि के निर्माण हेतु यहीं पर निर्गुण एवं अनादि भगवान शङ्कर, प्रकृति और पुरुष के रूप में तथा शक्ति और शिव के रूप में प्रकट हुए थे।

श्रीत्र्यम्बकेश्वर मन्दिर  – नाशिक, महाराष्ट्र

काशी से हमारी यात्रा अब पश्चिम दिशा की ओर, दिव्य गोदावरी या गौतमी गंगा के तट पर ब्रह्मगिरि पहाड़ी की मनोरम तलहटी की ओर बढ़ती है। यहाँ पर तीन नेत्रों वाले भगवान त्रयम्बकेश्वर, समस्त भक्तजनों का उत्थान करने के लिए, एक अर्वाचीन लिंग में विष्णुजी और ब्रह्माजी के साथ विराजमान हैं।

इस मन्दिर का पुनर्निर्माण अठारहवीं शताब्दी में किया गया था और  वर्तमान काल में वास्तुशिल्प  की दृष्टि से यह अपनी उत्कृष्टता के लिए भी विख्यात है। यहाँ का पवित्र ज्योतिर्लिङ्ग तीव्र गति से क्षीण होता प्रतीत हो रहा है।

त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा

ऐसा माना जाता है कि महान ऋषि गौतम और उनकी पत्नी की लम्बी एवं कठिन तपस्या के परिणामस्वरूप, इस मनोरम स्थान पर, श्रीत्रयम्बकेश्वर और दिव्य गोदावरी या गौतमी गंगा का प्रादुर्भाव हुआ था।

श्रीकेदारनाथ मन्दिर  – रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड

अब समय है, उत्तर की ओर जा कर, बर्फ की चादर ओढ़े, गिरिराज हिमालय की गोद में एक कठिन और खड़ी चढ़ाई का आनंद लेने का । विशाल मंदाकिनी के तट पर, केदार की मनमोहक भूमि पर निर्मित, आदिदेव केदारनाथ के पुरातन और भव्य मन्दिर  की एक झलक, इस कठिन यात्रा को सुगम बना देती है। यहाँ अनन्त धैर्य के स्वामी नंदी को नमन कर, निर्वाण दर्शन और आरती दर्शन कर, महादेव से श्रद्धालु आत्मज्ञान के लिए प्रार्थना करते हैं।

शीतकाल में केदारनाथ मन्दिर बन्द कर दिया जाता है और ऊखीमठ में भगवान के पंचमुखी स्वर्ण मुकुट की पूजा की जाती है। इन छह महीनों के दौरान, मन्दिर के गर्भगृह में रुद्र-शिव के असीम तेज रूपी एक अखण्ड दीपक प्रज्वलित रहता है।

केदारनाथ ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा

मान्यता के अनुसार केदारनाथ के लिङ्ग में वही ज्योति समाहित है जो भगवान विष्णु के नर और नारायण अवतार द्वारा पूजी जाने वाली पार्थिव लिङ्ग में प्रकट हुई थी। एक अन्य कथा के मुताबिक, शिवजी ने एक बार भैंसे का रूप धारण कर लिया था और धरती के नीचे लुप्त हो गये थे। तदन्तर पाण्डवों ने उनसे अनुग्रह के लिए प्रार्थना करी और इसी स्थान पर उनकी पीठ ज्योतिर्लिङ्ग के रूप में प्रकट हो कर स्थापित हो गयी।

श्रीघृष्णेश्वर (घुश्मेश्वर) मन्दिर  – छत्रपती संभाजीनगर, महाराष्ट्र

इस अद्वितीय तीर्थ यात्रा में हमारा अंतिम पड़ाव भारत के पश्चिमी भाग में स्थित, धर्मपरायणा घुश्मा के स्वामी, श्रीघुश्मेश्वर का निवास स्थान है। घृष्णेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध इस स्वरूप में, उदार महादेव भक्तों को उनके सभी पापों से मुक्त कर देते हैं।

घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग की उत्पत्ति की कथा

घुश्मेश्वर में शिव का प्रादुर्भाव उनकी महान भक्त घुश्मा के द्वारा इलापुर में पूजित पार्थिव लिङ्ग में हुआ था। घुश्मा की अर्चना से प्रसन्न होकर उन्होंने न केवल उसके पुत्र को पुनर्जीवित कर, उसके परिवार को आशीर्वाद दिया था बल्कि यह भी वरदान दिया था कि उस पवित्र स्थान पर उनका ज्योतिर्लिङ्ग अनन्त काल तक उसके नाम से ही जाना जायेगा।

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग के स्थान पर मतान्तर

कुछ भक्त राजस्थान के सवाई माधोपुर के शिवाड़ नामक ग्राम में स्थित प्राचीन लिङ्ग को भी घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग मानते हैं।

हमारे द्वारा किये गए अगणित पापों से मुक्ति पाना तो शायद इस जीवन में संभव नहीं है। परन्तु भारत की पतित पवन भूमि पर इन द्वादश ज्योतिरलिङ्गों  के दिव्य दर्शन कर, आत्मा के परमात्मा से मिलन की ओर अग्रसर होना, शायद असंभव नहीं हैं। यह नैसर्गिक द्वादश ज्योतिरलिङ्ग तीर्थयात्रा हमारी आध्यात्मिक यात्रा की… हमारे मोक्ष की यात्रा का शंखनाद है।

ॐ नमः शिवाय।

Garima Chaudhry Hiranya Citi Tata Topper

Garima Chaudhry

Garima is a corporate leader and the Founder and Editor of Cultural Samvaad. Passionate about understanding India’s ancient 'संस्कृति 'or culture, she believes that using a unique idiom which is native to our land and her ethos, is the key to bringing equitable growth and sustainable change in India.

Deeply interested in Indic Studies, Garima has been a visiting faculty member for over a decade at the Mumbai University and K J Somaiya Institute of Dharma Studies among others. She has taught diploma, graduate and post graduate courses in Development of Religious Thought in India, Hindu Thought and Purakatha, Buddhism and Comparative Mythology among others. She also conducts immersive workshops for various cohorts on appreciating India and her past, her dharmic traditions and her enduring values, stories and symbols.

In her corporate avataar, Garima runs Hiranya Growth Partners LLP, a boutique consulting and content firm based in Mumbai. She is a business leader with over 25 years of experience across Financial Services, Digital Payments and eCommerce, Education and Media at Network18 (Capital18 and Topperlearning), Citibank and TAS (the Tata Group). Garima is an MBA from XLRI, Jamshedpur and an Economics and Statistics Graduate.

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